अखिलेश कुमार श्रीवास्तव ‘चमन’, सेवानिवृत्त अधिकारी एवं लिटरेरी एडिटर-ICN हिंदी
कहानी
और अब आगे
जैसे-जैसे समय बीतता गया बंटी और नूरी जी, जान से एक-दूसरे पर न्यौछावर होते चले गए। जितनी भी देर स्कूल में रहते उन दोनों का उठना-बैठना, खाना-पीना, खेलना- कूदना, सब कुछ साथ ही होता था। लेकिन स्कूल से बाहर निकलते ही वे दोनों एक-दूसरे के लिए बिल्कुल अजनवी बन जाते थे। मम्मियों के द्वारा लगायी गयी पाबन्दियों का असर यह हुआ कि वे दोनों बच्चे अब बड़ी सफाई से झूठ बोलना सीख गए। नूरी की मम्मी तो कुछ दिनों के बाद उस प्रकरण को भूल सी गयीं लेकिन बंटी की मम्मी सदैव चैकन्नी रहतीं और हर दूसरे, तीसरे दिन बंटी से पूछताछ करती रहतीं-‘‘बेटा ! तुम नूरी से बात तो नहीं करते….? उसके पास तो नहीं बैठते….? उसके टिफिन से कुछ खाते तो नहीं….?’’
बंटी अपनी मम्मी का मंतव्य समझ चुका था इसलिए बड़ी सफाई से झूठ बोल देता-‘‘नहीं मम्मी नूरी से मैं कभी बात नहीं करता। मैं तो उससे अलग दूसरी तरफ बैठता हूूॅं।’’
बुरे दिन तो पहाड़ सरीखे लम्बे हो जाते हैं….बिताए नहीं बीतते लेकिन अच्छे दिनों का पता ही नहीं चलता कि कब बिल्ली की तरह दबेे पाॅंव आते हैं और अचानक कब गौरैया की तरह फुर्र हो जाते हैं। चार वर्षों का समय हॅंसते-खेलते कब बीत गया बंटी और नूरी को पता ही नहीं चला। कक्षा चार की परीक्षा हो चुकी थी और गर्मी की छुट्टियाॅं चल रही थीं। अचानक एक दिन बंटी ने देखा कि उसके घर के सामान समेटे और बाॅंधे जाने लगे थे।
‘‘यह सारा सामान क्यों बाॅंधा जा रहा है मम्मी….?’’ जब मामला समझ में नहीं आया तो बंटी ने पूछा।
‘‘बेटा….तुम्हारे पापा का ट्रांसफर हो गया है।’’
‘‘ट्रांसफर….? यह क्या होता है मम्मी….?’’
‘‘मतलब यह कि अब हम लोग यहाॅं नहीं रहेंगे, दूसरी जगह चले जायेंगे।’’
‘‘हम लोग यहाॅं फिर कब आयेंगे….?’’
‘‘अब यहाॅं नहीं आयेंगेे हम लोग।’’
‘‘तो फिर मैं स्कूल कैसे जाऊॅंगा ?’’
‘‘हम लोग जहाॅं जायेंगे वहाॅं नए स्कूल में तुम्हारा नाम लिखा दिया जायेगा।’’ मम्मी ने बताया और सामान समेटने में व्यस्त हो गयीं।
अपनी मम्मी की बात सुन कर बंटी एकदम से उदास हो गया। नूरी का साथ छूटने की कल्पना मात्र से ही वह परेशान हो उठा। उसका मन न टी0वी0 देखने में लग रहा था न ही खेलने में। काफी देर तक वह कमरे में गुमसुम लेटा रहा फिर शाम ढ़लते ही दबे पाॅंव घर से निकला और भागता हुआ नूरी के घर की तरफ जा पॅंहुचा। नूरी अपनी खिड़की के पास खड़ी थी। बंटी ने हाथ हिला कर उसे बाहर आने का संकेत किया तो वह भी चुपचाप बाहर आ गयी। दोनों पार्क के अंदर गए और पत्थर की एक बेंच की आड़ में बैठ गए।
‘‘नूरी ! अब हम लोग यहाॅं से चले जायेंगे…।’’ बंटी ने रुआँसा हो कर कहा।
‘‘कहाॅं….? कहाॅं चले जाआंगे तुम….?’’ नूरी चैंक पड़ी।
‘‘मेरे पापा की यहाॅं से बदली हो गयी है। अब कहीं दूसरी जगह चले जायेंगे हम लोग।’’
‘‘तो फिर यहाॅं कभी नहीं आओगे….?’’
‘‘पता नहीं…..।’’
‘‘तो फिर तुम स्कूल भी नहीं जाओगे…?’’
‘‘ना….। मेरी मम्मी कह रही थीं कि हम लोग जहाॅं जायेंगे वहाॅं दूसरे स्कूल में मेरा नाम लिखाया जाएगा।’’
इतना सुनने के बाद नूरी ने और कुछ नहीं पूछा। उसका जी जाने कैसा कसैला सा हो आया, मन में अजीब सी बेचैनी होने लगी और उसके गोरे-गोरे गालों पर आँसू की बूॅंदें लुढ़क आयीं। दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। बस मुॅंह लटकाए, खामोश बैठे एक दूसरे को देखते रहे।
‘‘नूरी…..ऐ नूरी….।’’ नूरी को घर में न पाकर उसकी मम्मी आवाज दे रही थीं। मम्मी की आवाज कानों से टकराते ही नूरी अचानक यूॅं चैंक पड़ी जैसे एकाएक नींद से जाग पड़ी हो। अपने आॅंसू पोंछते हुए वह उठी और भागती हुयी पार्क से बाहर निकल पड़ी। अकेला बंटी काफी देर तक वहीं गुमसुम बैठा रहा। जब अॅंधेरा घिरने लगा तो उदास मन घर लौटा और मम्मी के लाख कहने के बावजूद बगैर खाना खाए सो गया।
देर रात तक बंटी के घर का सारा सामान बॅंध गया। सवेरा होते ही एक बड़ा सा ट्रक आ कर घर के दरवाजे पर खड़ा हो गया और सारा सामान उसमें रखा जाने लगा। फिर बंटी, उसकी बड़ी बहन तथा उसके मम्मी, पापा भी उसी ट्रक में बैठ गए और ट्रक चल पड़ी। अपने घर के बाहर दरवाजे पर खड़ी नूरी लगातार तब तक देखती रही जब तक कि वह ट्रक कालोनी के गेट से बाहर नहीं निकल गया।
समय बीतता रहा,। बंटी के पापा का स्थानान्तरण एक शहर से दूसरे और दूसरे से तीसरे शहर होता रहा। बंटी भी कक्षा दर कक्षा आगे बढ़ता स्कूल से कालेज और कालेज से मेड़िकल कालेज तक पॅंहुच गया लेकिन अपनी स्मृति-पटल से नूरी का नाम नहीं मिटा सका। नूरी के संग हॅंसते, खेलते बिताए अल्हड़ बचपन के चार वर्ष किसी पत्थर पर खिंची लकीर की भाॅंति उसकी स्मृति में सदा, सर्वदा के लिए अमिट हो चुके थे।
मेड़िकल कालेज के सभागार में आयोजित नवागन्तुकों के परिचय समारोह में अमोल ने जब पहली बार उसे देखा तो एकदम से चैंक पड़ा। अरे….! यह क्या….? नूरी….यहाॅं मेड़िकल कालेज में….? सभागार में दूसरे छोर पर प्रथम वर्ष की लड़कियों के मध्य बैठी थी वह। उसे देख अमोल का रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसके जी में आया कि उसके सामने जा कर चुपचाप खड़ा हो जाए और उसकी प्रतिक्रिया देखे। देखे कि इतने वर्षों के अंतराल के बाद वह उसको पहचान पाती है या नहीं। लेकिन तभी कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया। सभी छात्र, छात्रायें बारी-बारी से मंच पर माइक के सामने जा कर अपना परिचय बता रहे थे। अमोल की निगाह उस पर ही लगी हुयी थी। वह साॅंस रोके उसकी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा था। जब उसकी बारी आयी और अपना परिचय बताने वह मंच पर पॅंहुची तो अमोल के दिल की धड़कन कई गुनी बढ़ गयी। उसके रोम-रोम में कान उग आए।
‘‘मेरा नाम रजिया खातून, तथा मेरे पिता का नाम श्री शमीम अहमद अंसारी है। मैं जिला बलिया, उत्तर प्रदेश की रहने वाली हूॅं।’’ उसने अपना परिचय बताना शुरू किया। उसका परिचय सुन कर अमोल को एक धक्का सा लगा। उसके कानों ने जो कुछ भी सुना उसके दिल को उस पर कत्तई विश्वास नहीं हो रहा था। ‘‘अरे ! यह तो नूरी है…..नूरजहाॅं। इसके पिता का नाम आफताब आलम है। इसने अपना नाम रजिया क्यों बताया ? अपना गलत परिचय क्यों बताया इसने….?’’ अमोल बारम्बार अपने आप से यही प्रश्न करता रहा।
एक सदमा सा लगा अमोल को। मेडिकल कालेज में उसके बैच में प्रवेश लेने वाली वह लड़की नूरी नहीं रजिया निकली इस सदमे से उबरने में कई दिन लग गए उसे। वह कई दिनों तक गुमसुम और खोया-खोया सा रहा। आखिर अपने मन को उसने यह कह कर समझाया कि चलो रजिया के रूप में ही सही लगभग दस वर्षों पूर्व बिछड़ी बचपन की दोस्त नूरी उसे वापस मिल गयी। उसने सप्रयास रजिया से परिचय किया और कक्षा में या बाहर जहाॅं भी मौका मिलता उससे बातचीत करने तथा उसके अधिकाधिक निकट पॅंहुचने के बहाने तलाशने लगा । धीरे-धीरे रजिया भी उससे खुलने लगी, उनके बातचीत का दायरा विस्तार पाने लगा और उनका सामान्य परिचय बहुत कम समय में ही प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया। अब उनका अधिकांश समय साथ-साथ ही गुजरने लगा।
सम्बन्धों में अनौपचारिकता तथा खुलापन आने के बाद एक दिन कालेज कैफेटेरिया में काॅफी पीते समय अमोल ने रजिया से प्रश्न किया-‘‘रजिया ! यदि मैं तुम्हें नूरी कह कर बुलाऊॅं तो तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं ?’’ और उसके इस प्रश्न पर रजिया खिलखिला कर हॅंस पड़ी थी।
जाति, धर्म की विभिन्नताओं के वावजूद उन दोनों में कई बातें समान थीं। जैसे कि दोनों ही छोटे शहरों से आए थे, दोनों ही मध्यमवर्गीय परिवार से थे, दोनों ही पहली बार अपना घर परिवार छोड़ कर निकले थे, दोनों ही महानगर एवं मेड़िकल काॅलेज के माहौल से आतंकित थे तथा दोनों ही अपनी पढ़ाई एवं कैरियर के प्रति अत्यधिक सजग व गंभीर थे। मिलते-जुलते, साथ-साथ रहते शीघ्र ही उनके अंदर प्रेम का बीज अखुआने लगा। शीघ्र ही वे एक दूसरे के लिए शिक्षक, प्रेरक, एवं अभिवावक की भूमिकाओं में आ गए। शीघ्र ही वह स्थिति भी आ गयी कि अपनी छोटी-छोटी जरूरतों, छोटी-छोटी बातों एवं छोटे-छोटे निर्णयों के लिए भी वे एक दूसरे की राय एवं सहायता के मोहताज हो गए। उनके इस प्रेम एवं आपसी सहयोग का सुखद परिणाम यह हुआ कि वे दोनों प्रथम सेमेस्टर से ही अपनी कक्षा के प्रथम दस छात्रों में स्थान पाने लगे।
समय पंख लगा कर भागता रहा। वे एक-एक सेमेस्टर पास करते रहे, और उनकी मेड़िकल काॅलेज की पढ़ाई अपनी पूर्णता की ओर बढ़ती रही। अचानक अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाओं से ठीक पहले रजिया बहुत नर्वस हो गयी। वह हर समय उदास और खोई-खोई सी रहने लगी। उसका मन पढ़ने, लिखने से उचट सा गया था। उसके अंदर हर समय एक अजीब सी घबराहट और बेचैनी घर किए रहती थी।
‘‘लगता है हम दोनों कुछ ज्यादा ही करीब आ गए हैं और एक दूसरे पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही निर्भर हो गए हैं। अब हमें आहिस्ता-आहिस्ता खुद को समेटना और एक दूसरे के बगैर रहने की आदत ड़ालनी चाहिए।’’ एक शाम बातचीत के दौरान रजिया ने बड़े दार्शनिक अंदाज में कहा ।
‘‘क्या मतलब….?’’ अमोल ने चैंक कर पूछा।
‘‘मतलब यह कि अब फाइनल सेमेस्टर की परीक्षायें सर पर हैं….उसके बाद हमारे रास्ते अलग हो जायेंगे। फिर न जाने मैं कहाॅं और तुम कहाॅं। उस स्थिति का मुकाबला करने के लिए हमें अपने आप को अभी से तैयार करना चाहिए।’’
‘‘ऐसा क्यों…? अभी तो हमें साथ-साथ एम0एस0 भी करना है। आज के जमाने में सिर्फ एम0बी0बी0एस0 की ड़िग्री की कोई पूछ है क्या….?’’
रजिया ने कोई जवाब नहीं दिया। खामोश बैठी वह शून्य में निहारती रही। अंदर की बेचैनी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। रजिया को चुप देखकर अमोल फिर बोला-‘‘क्यों तुम्हारा इरादा एम0एस0 करने का नहीं है क्या ?’’
‘देख जाएगा….तब की तब सोची जाएगी…। अभी तो जो सामने है पहले वह तो पूरा हो।’’ बहुत बुझे स्वर में रजिया ने उत्तर दिया।
‘‘देखा नहीं जाएगा….एम0एस0 तो करना ही करना है। फाइनल सेमेस्टर के एग्जाम्स समाप्त होते ही एम0एस0 के इन्ट्रेन्स टेस्ट की तैयारी में जुट जाना है…। समझी…?’’ अमोल ने अधिकारपूर्वक अपना निर्णय सुना दिया
‘‘अच्छा बाबा….हुजूर का हुक्म सर-माथे पर।’’ रजिया ने चेहरे पर जबरदस्ती मुस्कुराहट लाने की कोशिश करते हुए कहा और बात का उपसंहार कर दिया।
परीक्षाओं की समाप्ति तक तो रजिया जैसे-तैसे अपने आप को सॅंभाले रही लेकिन परीक्षायें समाप्त होते ही बीमार हो कर बिस्तर में गिर पड़ी। जानकारी मिली तो अमोल भागा-भागा रजिया के हास्टल पॅंहुचा। गले तक कम्बल ओढ़े रजिया बिस्तर में निढ़ाल सी पड़ी थी।
‘‘क्या बात है भाई….? लगता है इस बार परीक्षाओं के दौरान कुछ ज्यादा ही मेहनत कर दी तुमने।’’ रजिया के बिस्तर के सिरहाने की तरफ रखी कुर्सी पर बैठते हुए अमोल ने कहा। रजिया ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने सर घुमा कर एक भरपूर निगाह अमोल पर ड़ाली फिर सर सीधी कर सूनी नजरों से कमरे की छत को निहारने लगी। अमोल प्रश्नवाचक नजरों से रजिया की तरफ देखता रहा। उत्तर की प्रत्याशा में बैठे अमोल को कमरे का सन्नाटा चुभने लगा। रजिया की खामोशी ने बेचैन कर दिया उसे।
‘‘अरे भाई ! कुछ तो बताओ कि क्या तकलीफ है तुम्हें…? क्या हुआ है…और कौन सी दवा ली तुमने…?’’ अमोल ने बहुत परेशान स्वर में कहा।
अमोल की व्याकुलता देख रजिया की आॅंखें ड़बड़बा आयीं। उसने सॅंभालने की लाख कोशिशें कीं लेकिनआँसू की कुछ बूॅंदें पलकों के किनारे से फिसलती हुयीं गालों पर लुढ़क ही आयीं। बहुत विवशता भरी नजरों से उसने अमोल की तरफ देखा और तकिया के नीचे से एक लिफाफा निकाल कर उसको थमा दिया। लिफाफा खुला हुआ था। अमोल ने लिफाफा के अंदर से पत्र निकाला और उसे एक ही साॅंस में पढ़ गया। वह पत्र रजिया के पिताजी का था। पत्र से स्पष्ट था कि रजिया ने अपने पिताजी से एम0बी0बी0एस0 के बाद यहीं रह कर एम0एस0 करने की अनुमति माॅंगी थी जिसके जबाब में उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए रजिया को साफ मना कर दिया था और एम0बी0बी0एस0 की परीक्षाओं के समाप्त होते ही तुरन्त घर लौटने के लिए कहा था। उसी पत्र में आगे यह भी लिखा था कि रजिया के बुआ के बेटे जावेद जो सउदी अरब में रहता था के साथ उसका रिश्ता पक्का हो चुका है और परीक्षाओं के बाद उसके वापस लौटते ही निकाह की तारीख तय कर दी जाएगी।
पत्र को पढ़ चुकने के बाद अमोल ने उसे मोड़ कर वापस लिफाफे में ड़ाला और लिफाफे को रजिया के सिरहाने तकिया के पास रख दिया। उसके बाद कमरे में गहरा सन्नाटा पसर गया। दोनों खामोश बैठे एक दूसरे से नजरें चुराते रहे। आखिर हिम्मत कर के अमोल ने ही चुप्पी तोड़ी-‘‘तो…फिर क्या विचार है तुम्हारा. ? क्या तय किया तुमने….?’’
सीधी लेटी रजिया ने सर को थोड़ा टेढ़ा किया और अमोल के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय स्वयं प्रश्नवाचक नजरों से उसके चेहरे की तरफ देखने लगी। मानो आॅंखों की मौन भाषा में पूछ रही हो-‘‘क्या वाकई तुम इतने भोले हो कि मेरे मन की बात नहीं जान पा रहे हो….? हर बात को जुबान से कहना जरूरी है क्या….?’’
रजिया के प्रश्नवाचक नजरों को झेल सकना अमोल के लिए कठिन हो गया। रजिया के अंतर्मन की समस्त पीड़ा उसकी सूनी, खामोशआँखों में उमड़ आयी थी। वह बहुत बेवसी, बेचैनी, बेचारगी, आतुरता एवं उम्मीद के साथ अमोल की तरफ देख रही थी। अमोल समझ नहीं पा रहा था कि ऐसे में वह करे तो क्या करे। उस विषम स्थिति से उबरने के लिए बात को कुछ समय तक के लिए टाल देना ही उसने श्रेयस्कर समझा।
‘‘अच्छा चलो….पहले तुम ठीक हो लो फिर बात करेंगे इस विषय में। अब कोई दूध पीते बच्चे नहीं रहे हम जो हर एक बात में मम्मी, पापा की परमीशन जरूरी हो। अपने कैरियर के बारे में खुद निर्णय लेना होगा हमें।’’ अमोल ने कहा। उसका दाहिना हाथ अपने आप रजिया के माथे पर चला गया। रजिया को जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। उसने कम्बल के अंदर से अपने दोनों हाथ निकाले और उन्हें अपने माथे पर रखे अमोल के हाथ के ऊपर रख कर आँखें बंद कर लीं। वक्त कुछ देर के लिए वहीं ठहर गया। बेचैनी को ठौर मिल गया। अंतस की सारी पीड़ा छू-मंतर हो गयी । और भारी बोझ के तले दबा रजिया का मन रूई के फाहे की तरह हल्का हो गया।
अमोल के सहानुभूति भरे चन्द शब्दों और स्नेहिल स्पर्श ने संजीवनी बूटी सा असर किया। दरअसल रजिया की बीमारी तन की नहीं बल्कि मन की थी इसलिए उसके चोटिल मन पर अमोल के स्नेह और सांत्वना का लेप लगते ही वह चटपट चंगी हो गयी। तीसरे दिन शाम पुनः वे दोनों कैफेटेरिया के अंदर अपनी खास कोने वाली मेज पर आपने-सामने बैठे थे।
‘‘क्यों राजो….! क्या अभी तक हम इस योग्य नहीं हो सके हैं कि अपनी जिन्दगी के बारे में खुद फैसले ले सकें।’’ अमोल ने प्र्रसंग छेड़ा।
रजिया ने कोई उत्तर नहीं दिया। खामोश बैठी वह गिलास से मेज पर छलक आए पानी में उॅंगली ड़ाले लकीरें खींचती रही।
‘‘बोलो भाई….! क्या माॅं-बाप के हर सही-गलत निर्णय को मानने के लिए बाध्य हैं हम ?’’ खामोश रजिया को अमोल ने पुनः कुरेदा।
‘‘आखिर तुम कहना क्या चाहते हो…?’’
‘‘वही जो तुम समझ रही हो….। ठीक वही बात जो तुम भी कहना चाह रही हो लेकिन कह नही पा रही हो।’’
‘‘अमोल ! दिवास्वप्न देखना, और अपने आप को धोखे में रखना कोई समझदारी नहीं। हम लाख बड़े और समझदार हो गए हों लेकिन हैं इसी समाज के अंग और हमें रहना भी इसी समाज में है। उस समाज में जहाॅं प्रेम करना अपराध की श्रेणी में आता है। तुम स्वयं देख रहे हो कि हमारे समाज में अंतर्जातीय विवाह भी लोगों के गले नहीं उतर पाता। आनर कीलिंग के नाम पर स्वयं बाप अपनी बेटी को काट देता है, भाई बहन को गोली मार देता है। फिर हमारा तो धर्म भी अलग है। तुम हिन्दू, मैं मुसलमान….।’’
‘धर्म नहीं राजो वह सम्प्रदाय है। धर्म तो हमारा एक ही है। या यूॅं कहो कि धर्म तो सम्पूर्ण मानवजाति का एक ही है। फिर अगर हम अलग-अलग सम्प्रदायों में पैदा हुए हैं तो इसमे भला हमारा क्या दोष…? किसी को चाहना, न चाहना तो अपने वश में है लेकिन किसी जाति या धर्म में जन्मना अपने वश में तो नहीं।’’
‘‘चलो धर्म की जगह सम्प्रदाय ही कह लो……लेकिन जहर की शीशी पर अमृत का लेबिल चिपका देने मात्र से उसका प्रभाव तो नहीं बदल जाता न। माना कि अपनी पैदाइस पर हमारा नियंत्रण नहीं लेकिन पैदा होने के साथ ही हमें अलग-अलग सम्प्रदायों के जिस खोल के अंदर ठूॅंस कर सिल दिया गया है क्या उस खोल को फाड़ कर बाहर बाहर आ सकना संभव है हमारे लिए ? यदि जैसे-तैसे आ भी जायें तो उस खोल से बाहर आ कर इस समाज में सही, सलामत जिन्दा रह सकेंगे हम….?’’
‘‘असंभव कुछ भी नहीं राजो जरूरत बस हिम्मत करने की है। कोई भी बंधन बस तभी तक बाॅंध पाता है जब तक कि हम बॅंधना चाहें….वरना तो दुनिया के सारे बंधन होते ही हैं तोड़े जाने के लिए। और शिक्षा का पहला उद्देश्य भी तो यही है कि विकास के मार्ग में अवरोध बनने वाले गलत और गैरजरूरी रूढ़ियों के हर एक बंधन को तोड़ा जाय।’’
‘भावुकता छोड़ो अमोल व्यावहारिकता की बातें करो। भावुकता और आदर्श की बातें कहने, सुनने में जरूर अच्छी लगती हैं लेकिन उन्हें व्यवहार में नहीं ढ़ाला जा सकता। सारी शिक्षा, समझ और विकास के बावजूद सच्चाई यही है कि तुम हिन्दू हो और मैं मुसलमान। शादी तो दूर हम दोनों के बीच प्रेम मात्र की खबर भी किसी बहुत बड़े हादसे और दंगे का कारण बन सकती है। वह तो गनीमत है कि हम यहाॅं अनजाने शहर में, मेड़िकल कालेज के खुले वातावरण में हैं इसलिए साथ-साथ घुम-फिर और मिल-जुल ले रहे हैं। वरना अगर कहीं किसी छोटे शहर में होते तो हमारे मेलजोल और साथ-साथ घुमने-फिरने को ले कर ही बवाल हो चुका होता।’’
‘‘तो क्या तुम इस संकीर्णता को सही मानती हो ?’’
‘‘सही मानने का तो खैर प्रश्न ही नहीं उठता….हम, तुम क्या कोई भी समझदार व्यक्ति इसे उचित नहीं ठहरा सकता। लेकिन सवाल यह है कि सिर्फ हमारे, तुम्हारे या हम तुम जैसे पाॅंच-दस लोगों के मानने या न मानने से क्या होना है। .यह समाज तो…..।’’
‘‘फिर वही समाज…..। अरे भाई यह समाज आखिर है क्या बला ? हम-तुम ही हो समाज हैं। अगर हर कोई ऐसे ही हथियार ड़ाल दे तब तो समाज की यह बीमारी जन्म- जन्मान्तर तक ऐसे ही चलती रहेगी। इलाज के लिए इसके विरूद्ध कभी न कभी किसी न किसी को तो पहल करनी ही होगी। कहीं न कहीं से तो शुरूआत होगी ही। और यह भी तय है कि पहल हम, तुम जैसों को ही करनी होगी।
‘‘तुम्हारी सभी बातें सच हैं…..मैं तुम्हारी हर बात से सहमत हूॅं……लेकिन फिर भी भाषण भाषण है और यथार्थ यथार्थ….। वो कहते हैं न कि चैकी की बात चैका में नहीं लागू होती। वही बात है। कहना जितना आसान है करना उतना ही मुश्किल।’’
‘‘इसका मतलब कि तुम्हें अपने आप पर भरोसा नहीं। राजो हर नई शुरूआत कीमत माॅंगती है…और जो कीमत चुकाते हैं वे ही बंधनों को तोड़ पाते हैं। अंग्रेजी में कहावत भी है-‘नो गेन, विदाउट पेन’। बिना कुछ खोए कुछ पाया नहीं जा सकता। बोलो है हिम्मत कीमत चुकाने की….?’’ रजिया की बात को बीच में ही काट कर अमोल बोल पड़ा और अपनी बात की समाप्ति तक आते-आते अपना दाहिना हाथ उसने चुनौती की मुद्रा में रजिया की तरफ बढ़ा दिया। अपनी तरफ बढ़े अमोल के हाथ को रजिया ने अपनी दोनों हथेलियों में दबाया और खींच कर अपने होठों से लगा लिया। उसी क्षण आँसू की दो बूॅंदें रजिया की आॅंखों से निकलीं और अमोल के हाथ पर चू पड़ीं। अमोल अंदर तक भींगता चला गया।